||••वृक्ष••||

||••वृक्ष••||

जो मानव के रक्षक हैं,
पर दुर्भाग्य देखिए मानव ही उनका भक्षक है।

 जल के जो संरक्षक हैं,
आज वही प्यास के मारे व्याकुल हैं ।

समझ नहीं आता है उनको,
किससे करें बयां अपनी पीड़ा?

कभी रहते थे हरे-भरे,
 देखो पतझड़ की लगी झड़ी है आज ।

देते थे छाया हो सबको लेकिन,
उनके उदर में मची हुई है हाहाकार ।

किया जिन्होंने जीवन अर्पण,
मानव के लिए छोड़ा संसार ।

आज वही कुंठित हैं,
मांग रहे अपना अधिकार,

नहीं उन्हें तकलीफ तुम्हारे विकास से,
 लेकिन वे कंपित है स्वयं के असुरक्षित व्यवहार से।

बचा लो जल और ,
कर दो उनको निहाल।

क्योंकि यह मृत्यु निनाद सिर्फ उनकी नहीं है।
 तुम्हारे ही जीवन संध्या की है एक ललकार ।

यह चिंता सिर्फ उनकी नहीं है ।
उन्हें चिंता है न  हो पीढी तुम्हारी बर्बाद।

अभी तो तपिस एक शुरूआत है ...
तब क्या होगा जब तक इसकी,
सीमा होगी बीच मझधार?

अगर संभल गए आज तो,
कल ना होगे परेशान।

अन्यथा वृक्षों की चीत्कार ना जाएगी बेकार,
कल तुम स्वयं तड़प मर जाओगे
जैसे उन्होंने त्यागे प्राण आज।।

||••अजीत मालवीया'ललित'••||

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