||••आँसुओं का सफर••||
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कॉलेज के लैब में प्रैक्टिकल चल रहा था लगभग सभी स्टूडेंट प्रेक्टिकल कर रहे थे कुछ स्टूडेंट टीचर को घेरकर खड़े हुए थे शायद कुछ शंका थी उनको उसी विषय पर विचार विमर्श चल रहा था,इसी दरम्यान में पीछे की और खड़ा था एक दम शांत और निर्मिमेष।
एक दोस्त मेरे पास आया और बोला कि- भाई मोबाइल तो निकाल एक सेल्फी लेना है क्योंकि माहौल ऐसा था कि मैं उसको मना ना कर सका तो मैंने चुपचाप अपनी जेब में हाथ डाला और मोबाइल निकाला जैसे ही हाथ में लिया तो देखा कि किसी का फोन आ रहा है क्योंकि मोबाइल साइलेंट मोड पर था तो पहले से पता नहीं चल पाया लेकिन जब देखा कि एक अति महत्वपूर्ण कॉल आ रहा है तो मैंने उसको रिसीव किया और लैब के आखिरी कोने में जाकर बात करने लगा, कुछ देर ही हुई थी कि बात करते हुए, कि एक मैडम धमक गई क्योंकि मैं अपनी बातों में मशगूल था तो मुझे आभास ही नहीं हुआ कि पीछे से कोई आ रहा है।
मैडम पीछे से आई और बोली -हो गई बात।
मैं थोड़े से सहमें हुए स्वर में बोला- हां
तो वह बोली- लाओ मोबाइल
और मेरे हाथों से उन्होंने मोबाइल छीन लिया मैं निर्मिमेष,अवाक् कुछ कह ना सका और वे मोबाइल लेकर चली गई उन्होंने मोबाइल हमारे एक सर को जा कर दे दिया जो कि हमारे ट्यूटर गार्जियन है।
कुछ दोस्तों ने कहा कि :- सर मोबाइल दे दीजिए किंतु सर ने एक न सुनी ।
मैं उस दिन मोबाइल के बिना ही कालेज से घर आ गया ।
जब घर आया तो कई सारे ख्याल मन में धमाचौकड़ी कर रहे थे- कि किसी का फोन ना आ जाए सर उठा ना लें, कहीं पापा का फोन ना आ जाए अगर सर ने उठा लिया तो घर पर सब कुछ पता चल जाएगा, पापा मुझे बहुत डाटेंगे वो रात मेरी बड़ी उथल- पुथल भरी रात थी, पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था अत्यंत बेचैनी का अनुभव हो रहा था बार-बार वही ख्याल आ रहे थे।
धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा था इसी उथल- पुथल में रात के एक बज चुके थे किंतु नींद है कि आंखों पर दस्तकत दे ही नहीं रही थी ।
समय बीतता गया रात के २ बज गये फिर धीमे धीमे नींद आ गई ।
सुबह को हमारे कॉलेज का सांची का टूर था सभी स्टूडेंट और टीचर सांची जाने वाले थे।
( जानकारी के लिए बता दूं कि यह भगवान बुद्ध का स्थान है यहां पर स्तूप बने हुए हैं।)
इसी कारण मैं सुबह जल्दी उठकर तैयार होकर प्रातः आठ बजे कॉलेज धमक गया। कुछ स्टूडेंट आ चुके थे, कुछ आने वाले थे। बिना मोबाइल के मेरा मन अत्यंत कुंठित था।
किसी दोस्त ने ढांढस बंधाया बोला भाई तू मेरा मोबाइल ले ले मेरे बहुत मना करने पर भी वह मेरे जेब में उसका मोबाइल रखकर चला गया और जाते-जाते चिल्लाकर लाक भी बता गया।
कुछ ही समय बाद वह सर भी आ गए जिनके पास मेरा मोबाइल था एक-एक कर सभी स्टूडेंट भी एकत्रित हो चुके थे बहुत शोरगुल चल रहा था कोई दोस्त मस्ती कर रहे थे तो कोई सुबह सुबह की ताजी ठंड का लुफ्त ले रहे थे तो कोई बातों में मशगूल थे सुबह-सुबह ठंड अच्छी थी सभी ने स्वेटर पहन रखा था और मैं भी अपने हाथ रगड़ रहा था ताकि थोड़ी गर्माहट का एहसास हो सके ।
जब हमारे टी जी ( जिनके पास मेरा मोबाइल था।) सर आये तो पुन: उनसे एक दोस्त ने मेरा मोबाइल वापस करने का आग्रह किया लेकिन, मैंने किसी को नहीं कहा था कि आप सर को बोलिए कि दे मेरा मोबाइल वापस कर दें फिर एक दो दोस्तों ने और बोला परंतु सर ने उनको साफ इनकार कर दिया कि मेरे पास कोई मोबाइल नहीं है क्योंकि मैं वहां पास ही खड़ा था तो मैं समझ गया कि सरकार रवैया सही नहीं है, हो सकता है कि वह मेरे से और भड़क जाएं इसलिए मैंने कोई भी प्रतिक्रिया देना उचित नहीं समझा।
बसें एक-एक कर लग चुकी थी सभी स्टूडेंट एक-एक कर बसों में सवार हो रहे थे हम लोगों की भी एक अलग बस तैनात की गई थी जिसमें हमारी कक्षा के सभी छात्र सवार हो गए लगभग सभी छात्र सवार हो चुके थे मैं ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठा हुआ था।
हमारे टी जी सर भी उसी बस में बैठ गए वे गेट के पास वाली सीट पर बैठ चुके थे कुछ ही समय बाद हरी झंडी हुई और बसें कॉलेज से रवाना हो गई मैं अपनी सीट पर एकदम शांत बैठा हुआ था मेरे पास ही तीन और दोस्त बैठे थे मेरी डायरेक्शन कुछ ऐसी थी मैं बस के सभी स्टूडेंट को भलीभांति देख पा रहा था सभी के चेहरे पर एक मुस्कान थी कोई अति प्रसन्नता तो कोई मंद मंद मुस्कुरा रहा था।
बस कॉलेज से बाहर निकल चुकी थी और अपनी अच्छी गति के साथ सुबह की शीत की ठंडी हवा को भेदते हुए आगे बढ़ रही थी मेरे चेहरे पर ना तो कोई शिकन थी और ना ही कोई मुस्कान परंतु मस्तिष्क थोड़ा भारी हो रहा था क्योंकि अभी तक मेरा मोबाइल मेरे हाथ नहीं लग लगा था और उन सर से मैंने कोई भी बात नहीं की थी यहां तक कि मैंने अपना मोबाइल नहीं मांगा था।
दरअसल मैंने ठान लिया था कि मैं सर से मोबाइल नहीं मांगूंगा चाहे वह ना दें।
धीरे-धीरे बस की रफ्तार बढ़ रही थी और स्टूडेंट की प्रसन्नता भी और मेरी शिकन भी!
हर क्लास में कुछ ऐसे विद्यार्थी होते हैं जो कि बहुत मस्तीखोर होते हैं वह मस्ती का हंसी मजाक का एक भी मौका जाया नहीं करते हैं हमारी क्लास में भी कुछ ऐसे विद्यार्थी थे जो कि मस्ती करने में पीछे नहीं रहते थे वहां उनकी चहल-कदमी मस्ती और हंसी बढ़ती जा रही थी और यहां मेरी मायूसी, वही बातें सोच सोच कर मेरा गला और रूंधता जा रहा था।
मैं किसी से कोई बात नहीं कर रहा था उन चहल-कदमी करने वालों में कुछ विद्यार्थी ऐसे थे जिनका थोड़ा बहुत ध्यान मेरी और भी था बस की रफ्तार के साथ ही मेरा गला अवरुद्ध हो चुका था और गले का पानी आंखों में उतर आया था मैंने धीरे से अपने जेब में हाथ डाला और अपनी आंखों से लगा लिया क्योंकि कोई मुझे देखे नहीं और मैने मेरा पूरा शरीर सड़क की ओर कर लिया और बाहर देखने लगा।
मेरी नजर फिर भी सब पर थी मैंने गौर कर लिया था कि टी जी सर ने मुझे देख लिया है और अब भी मुझे नोटिस कर रहे हैं लेकिन ना तो वह कुछ बोले और ना ही मैं कुछ बोला अब तक मेरे दिमाग में कई सो ख्याल चलने लगे थे और मैं परेशान था दिमाग में विचित्र खयाल आ रहे थे और आंसू आ रहे थे; मैं बार-बार रुमाल से अपनी आंखों को सुखाने की नाकाम कोशिश कर रहा था, क्योंकि मैं जैसे ही पोंछता तो एक बूंद फिर टपक आती यह नेत्रों का पानी किसी भय के कारण नहीं आ रहा था और ना तो मेरा मोबाइल जप्त है इसलिए ही परंतु आंसू आ रहे थे पता नहीं क्यों?
इसका जवाब मेरे पास भी नहीं था।
मैंने अपने आप को संभाल रखा था ताकि कोई कुछ कह ना सके यहां तक पास बैठे ड्राइवर को भी एहसास मैंने नहीं होने दिया कि मैं रो रहा हूं।
समय बीतता गया बस को चलते चलते लगभग पौन घंटा हो गया था।
कॉलेज की शेडूल के मुताबिक सभी बसें एक स्थान पर खड़ी हुई ताकि सभी विद्यार्थी नाश्ता कर सकें क्योंकि हमारी बस पीछे थी तो अंत में जाकर वह भी खड़ी हो गई और सब स्टूडेंट उतरने लगे अंत में अकेला बस मैं बैठ रहा कुछ समय बाद एक सर आये
...... उन्होंने कहा कि -क्यों तुम्हे नाश्ता नहीं करना ?
मैंने कहा कि- नहीं!
लेकिन उन्होंने कहा कि- चलो नीचे उतरो सभी को करना है।
तो मैं भी नीचे उतर गया जबकि सब विद्यार्थी नाश्ता पर टूट पड़े थे और गरमा गरम पोही जलेबी और समोसा का लुफ्त उठा रहे थे क्योंकि सड़क के उस पार दुकान थी तो मैं आराम से दुकान के उस पार पहुंच गया मुझे भी नाश्ता लेने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया मैंने कहा कि मुझे भूख नहीं है तत्पश्चात मैं बिना नाश्ता किए ही ना अपनी बस के पास खड़ा हो गया अनेकों अनेक ख्यालात मन को अशांत किए हुए थे।
मैं मन ही मन कुछ एक शब्दों पर ही मंथन कर रहा था। कभी उन शब्दों में डूब जाता तो कभी तैर कर ऊपर आ जाता बार-बार मुझे स्वयं से क्लेस हो रहा था तो कभी अपने शिक्षक के प्रति ही क्लेस हो उठता अपनी आंखों के पानी से गले को तर कर रहा था।
कभी सोचता कि यह गलत हुआ सर कभी सोचता कि मैं अपने आत्मसम्मान को झुकने नहीं दूंगा।
कभी उस गलती की माफी मांगने का दिल करता जो कि वास्तव मैंने की ही नहीं जिसे कि प्रायः सभी करते हैं जो कि माफी मांगने लायक है ही नहीं दो कि बहुत बड़ी गलती की नहीं है इस पर की मुझे इतना परेशान होना ही नहीं चाहिए किंतु फिर भी कई बार मेरे मन में यह ख्याल आया कि सर से माफी मांगी जाए और मोबाइल वापस दिया जाए परंतु मेरे अंदर का स्वाभिमान, मुझे यह करने से मना कर रहा था और मैं भी उसे सहमत था कुछ ही समय बाद विद्यार्थी नाश्ता करके बस की और आने लगे और उन्हें देख मैंने अपनी आंखों को पोंछा और जाकर यथास्थान अपनी सीट पर बैठ गया और विद्यार्थी भी एक-एक करके बैठने लगे तभी टी जी सर भी बस के पास आकर खड़े हो गये ।
कुछ स्टूडेंट उनके साथ सेल्फी लेने लगे देखते ही देखते सब में एक होड सी लग गई कई सारे स्टूडेंट ने सर के साथ सेल्फी ली।
मैं चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा तभी मेरे पास बैठे एक दोस्त ने पुन: सर को टोका और कहा कि - सर उसका मोबाइल दे दीजिये ना ;
तब तक सर भी मुझसे अति खिन्न हो चुके थे और बे उस मित्र पर भड़क गए और कहा कि -
कौन लगता है वो तुम्हारा जो तुम उसकी इतनी चिंता कर रहे हो?
वह दोस्त भी कुछ ना कहे सका और एक दम शांत सा हो गया और मैंने भी उसको कहा कि - मैंने तुझे मना किया था ना कि सर से मोबाइल मत मांगना।
दोस्त को भी सर पर गुस्सा आ गया उसने मुझसे धीरे से कहा कि कैसे सर है यार ।
मैनें जैसे की उसकी बात को अनसुना कर दिया फिर अपने ही अंदर गोता लगाने लगा ।
पंद्रह -बीस मिनट रुकने के बाद बस चल पड़ी और जैसे की नाश्ता करने के बाद स्टूडेंट में और अधिक जोश आ गया
और मैं ज्यों का त्यों शांतिपूर्वक बैठा रहा कॉलेज के दोस्तों के साथ उनकी मस्ती में तल्लीन न होना और मेरे शांत स्वभाव का एक नया इम्तिहान था जिसे मैंने स्वीकार किया और उस शोरगुल उनकी मस्ती के बीच खुद को एक रेगिस्तान के कोने में पड़े हुए ही पाया ना तो मेरे चेहरे पर पूरी यात्रा की बीच कोई मुस्कान थी न ही भारा गम परंतु मस्तिष्क थोड़ा बहुत भारी जरुर रहा जो कितनी टेंशन के बावजूद लाजमी था और पुनः बस अपनी गति पकड़ चुकी थी और स्टूडेंट की मस्ती भी चरम सीमा पर थी।
वह प्रकार से मनोरंजन किया जा रहा था कोई गाना बजा रहा था तो कोई बस में ही थिरक रहा था तो कोई अजीबोंगरीब सी आवाज निकाल कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।
मेरे घर की यादें उन आंसुओं में ओझल हो रही थी और इसी प्रकार की तमाम कश्मकश को लेकर मैं पहुंच चुका था सांची ।
वहां टीचर ने ही टिकटें ली और सबको थमा दी तत्पश्चात हम सभी मैन गेट जा पहुंचे वही रास्ते में जाते वक्त एक दोस्त आया और बोला यह लो तुम्हारा मोबाइल हालाकि मुझे थोड़ी बहुत प्रसन्नता तो हुई सो मैंने उसे प्रकट भी की।
उसने कहा कि- सर ने मुझे दिया है बाद में वो मेरे से ले लेंगे। हालाकि मैंने कहा कि -ठीक है जब चाहिए तब वापस ले लेना ।
अब हम सांची पहुंचे और स्तूपों को देखा जिन सब चीजो को मैंने किताबों में देखा था और पढा था, उन सबको उस दिन मैंने अपनी आंखों से देखा, अच्छा लगा वहां हम सभी ने लगभग एक दो घंटे तक भ्रमण किया और सब ने वहां की स्थापत्य कला का अवलोकन किया और उसके बारे में जाना।
फिर जब हम घूमकर बाहर आने लगे तब उसी में गेट पर मैंने उन सर को देखा और उनकी तरफ लपका मैंने कहा -सार फोटो प्लीज ।
सर ने कहा कि -मोबाइल मिल गया इसलिए बताने आए हो क्या ?
हाँलाकि उनके शब्दों में कोई बदले की भावना नहीं थी।
मैंने कहा - नहीं सर यह मोबाइल किसी और का है और मैंने उनके साथ एक सेल्फी ली तथा कल से जो बोझ मेरे ऊपर रखा था वो हल्का हो गया!
शायद कि मैंने अपने स्वाभिमान को टूटने नहीं दिया।।
-अजीत मालवीया'ललित'
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