||••मैं जीवित हूँ खुद को देखकर••||

















हाँ ! ये बात सच है कि,
 मैं जीवित हूँ खुद को देख कर...


 जब भी मैं अपने
अनुपम मित्रों के बीच में
खुद को पाता हूं,
तो मुझ में जीवंतता का,
प्रस्फुटन पुनः हो जाता है।

बिखरे हुए किताब के पन्नों की तरह,

 जब मेरे मित्र बिखर जाते हैं,
तब उन अमूल्य मोतियों को ।
स्वयं धागा बन उनकी ,
अस्मिताओं को समेटता हूं ,
और समाहित करता हूं खुद में।

जब भी अपनी छवि को देखता हूँ,
मित्रों की डायरी में ;
तब पुनः अपने 18 वर्षीय,
 जीवन की तलाश में 
लालायित होता हूँ।

गुजरा था वो पल सालों पहले,

जब हम भी जवान हुआ करते थे।
समेटी की यादें अपने आंचल में,
अपने दोस्तों के संग;
पर वो  आज कहीं
 सूली पर परवान हो गई हैं ,
दूरियों की जंग में।

 आज भी मैं वर्षों से 

उन्हें तलाश रहा हूं....
मन की प्रबुद्धता की छांव में,
दूर कहीं कौतूहल का दीपक,
आज भी प्रकाशमान है।

जब मिल जायेंगे वह,

समुद्र किनारे के शीप,
 तब उन पर  भरपूर 
भड़ास निकालूंगा,
उन सब से एक ही 
सवाल पूछूंगा~
 कि अब तक कहां थे?

रेगिस्तान की रेत में मैं आज भी

पानी की बूंदे तलाश रहा हूं,
मन में विश्वास है कि 
वह जरूर मिलेंगी।

'ललित' रूपी यह यादें मुझे,

सागर के दो किनारों की तरह,
आजीवन समेटे रहेंगी।
 हाँ! ये बात सच है कि,
मैं जीवित हूं खुद को देख कर।।

~अजीत मालवीया'ललित'
Email- malviyaajeet1433@gmail.com

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