तुम! - १

तुम!
काव्यों की जो शोभा बड़ा सकें,
अमृतता का वो सुरभित छंद हो तुम।
 जिसे हर कोई महसूस कर सके,
 पवन की वह मंद तरंग हो तुम।
प्यास दुनिया की मिटे जिससे,
 पीयूस घट का वो वृंद हो तुम।
 महक सके वातावरण जिससे,
पुष्प की  वह निर्मल सुगंध हो तुम।
जुदा जिसको मैं करना सकूं,
मेरे कलेवर का वो अभिन्न अंग हो तुम।
फाडा  जिसको जा न सके,
मेरी किताब का वो पठनीय पृष्ठ हो तुम।
पूर्ण कभी जिसको मैं कर ना सका,
 मित्रता का वो अमृत तुल्य व्यंग हो तुम।
 याद जिसकी भुला न सकूं,
यादों का वो दुर्मिल खण्ड हो तुम।
 कानों में ध्वनि  गुंजायमान हो जिसकी,
 शहनाई का वो सुरीला संगीत हो तुम।
 वेग जिसका तीव्र है,
शांत सागर की वो स्वच्छंद तरंग  हो तुम।
 अब और क्या मैं तुमसे कहूं?
व्यक्त जिसको मैं करना सका,
वर्णमाला का वो अव्यक्त शब्द हो तुम।

~अजीत मालवीया "ललित"
malviyaajeet1433@gmail.com

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